धूप खिड़की से सिरहाने आई चाँद ख़्वाबों के बुझाने आई हाए वो फूल से हँसते चेहरे याद फिर उन की रुलाने आई दिल चराग़ों के अभी लर्ज़ां हैं फिर हवा होश उड़ाने आई दिल सुलगता था शब-ए-ग़म यूँही चाँदनी और जलाने आई उठ हुई सुब्ह-ए-अज़ाँ की आवाज़ नींद से मुझ को जगाने आई ओढ़ ली तू ने बरहना तहज़ीब शर्म तुझ को न ज़माने आई और 'परवीन' से हुज्जत कीजे आप की अक़्ल ठिकाने आई