ढूँढता हूँ रोज़-ओ-शब कौन से जहाँ में है इक मकाँ कि रौशन सा बस्ती-ए-गुमाँ में है सुस्त-रौ मुसाफ़िर की क़िस्मतों पे क्या रोना तेज़ चलने वाला भी दश्त-ए-बे-अमाँ में है ख़ुश बहुत न हो सुन कर साहिलों का आवाज़ा इक फ़सील पानी की और दरमियाँ में है लौटने नहीं देता ये तिलिस्म रस्तों का जानता हूँ मैं वर्ना सुख बहुत मकाँ में है राज़ कुछ नहीं खुलता इस अजब नगर का याँ सूद में न था दिन भी रात भी ज़ियाँ में है देखता नहीं है क्या सात आसमाँ वाला कौन धूप के अंदर कौन साएबाँ में है