इक बार सामना हुआ और आँख लड़ गई इतनी सी बात थी मगर अफ़्सोस बढ़ गई शरमाए वो लजाए कभी मुस्कुरा दिए बेल अपने प्यार की यूँही परवान चढ़ गई फिर नामा-ओ-पयाम का इक सिलसिला छिड़ा आँगन में हम खड़े थे वो कोठे पे चढ़ गई होने लगे इशारे जो हर रोज़ सुब्ह-ओ-शाम ये देख के हमारी पड़ोसन बिगड़ गई बस बनते बनते रह गया 'महफ़ूज़' अपना काम राज़ी जो उस का बाप हुआ माँ अकड़ गई