ढूँडते हो दिल-ए-फ़िगार में क्या हो भी सकता है इस मज़ार में क्या लफ़्ज़ करते हैं रक़्स चारों तरफ़ लिखता रहता हूँ मैं ख़ुमार में क्या मर्तबे रिफ़अतें मक़ाम और नाम और होता है इंकिसार में क्या चंद साँसों की मोहलतों के एवज़ उस ने बख़्शा है इंतिज़ार में क्या किस की ख़ुशबू मुझे बुलाती है कोई महका मिरे मदार में क्या जिन की मिट्टी ख़िज़ाँ से उट्ठी हो मिल सकेगा उन्हें बहार में क्या चिढ़ है क्यों इत्तिहाद से तुम को दोस्त बरकत है इंतिशार में क्या डाची वाले चले गए कब के सर खपाओगे अब ग़ुबार में क्या साथ ले कर नहीं गया कुछ मैं ढूँडते हो मिरे मज़ार में क्या रात डूबी है क्यों अंधेरे में चाँद निकला नहीं दयार में क्या