धूप कमरे में चली आई थी जब दरीचे से शनासाई थी शहर का शहर उमड आया था क्या अजब पुर्सिश-ए-तन्हाई थी मैं ने शमशीर बना ली उस से तुम ने ज़ंजीर जो पहनाई थी कुछ तो बदला है बिछड़ कर उस से रात क्यों नींद नहीं आई थी शहर-ए-गिर्या के शब-ओ-रोज़ न पूछ रात के बा'द भी रात आई थी तुम ने समझा था नवाज़िश जिस को वो तो ज़ख़्मों की पज़ीराई थी उस ने आँखों से पुकारा था मुझे मेरी लफ़्ज़ों से शनासाई थी वो तो काम आ गई वहशत 'तारिक़' वर्ना रुस्वाई ही रुस्वाई थी