दी है अगर हयात तमन्ना किए बग़ैर अब मौत भी अता हो तक़ाज़ा किए बग़ैर बाज़ार-ए-ज़िंदगी है फ़क़त घूमने की जा कुछ भी यहाँ मिलेगा न सौदा किए बग़ैर मैं भी अना-पसंद हूँ लेकिन करूँ तो क्या दिल मानता नहीं उसे सज्दा किए बग़ैर जल्वा नुमूद-ए-जिस्म है और जिस्म है हिजाब पर्दे में कोई रहता है पर्दा किए बग़ैर मंसूब किस से होती फिर आख़िर मता-ए-दिल मैं तुम को छोड़ देता जो अपना किए बग़ैर ये कार-नामा है दिल-ए-ख़ुद-एहतिसाब का मैं पाक-बाज़ हो गया तौबा किए बग़ैर फ़रियाद किस से कीजिए उस चारा-साज़ की जो छोड़ दे मरीज़ को अच्छा किए बग़ैर चुप रह के मुतमइन हैं नहीं जानते 'सरोश' कुछ राज़ फ़ाश होते हैं चर्चा किए बग़ैर