दीदनी है बहार का मंज़र ज़हर छिड़का गया दरख़्तों पर बुन रहे हैं उरूस-ए-गुल का कफ़न मगस-ए-बर्ग ओ अन्कबूत-ए-शजर चील कव्वों को ताकते रहिए चाँद तारों से थक गई है नज़र जो मिरा तकिया-ए-जवानी था उसी बरगद की झुक गई है कमर हाथ फैला के चीख़ते हैं दरख़्त सरसर-ए-हादिसा का रुख़ है किधर सुर्ख़ फूलों के लाल अंगारे चश्म-ए-ज़र्द-ए-उक़ाब के अख़गर वो जबीन-ए-शफ़क़ पे ख़त्त-ए-शुआ' ख़ून से किस के सुर्ख़ है ख़ंजर अब के बरसात कुछ तो रास आई घास उगने लगी मुंडेरों पर धूप इस सहन में न दर आए बंद कर दो तमाम रौज़न-ए-दर रक़्स करते हुए बगूलों में देव ओ जिन्नात ओ रूह के लश्कर देखता हूँ कि क्या दिखाते हैं अपने साए पे जम गई है नज़र आलम-ए-बे-ख़ुदी में गहरा साँस सीना-ए-काएनात में है सफ़र आप अपने से क्यूँ गुरेज़ाँ हूँ किसी आसेब का है मुझ पे असर कौन मेरे लिए है शब-बेदार क्यूँ बरसते हैं रात भर पत्थर मैं ही मैं हूँ ख़ला-ए-तीरा में न अतारिद न मुश्तरी न क़मर तह-ब-तह ज़ुल्मतें हैं जुम्बिश में रेंगते हैं सियाह-पोश अज़दर जबलुश्शम्स की बुलंदी से देखता हूँ ज़मीं को झुक झुक कर एक पुर-नूर नीलगूँ नुक़्ता काँपता है ख़ला में रह रह कर कहकशाँ से शुमाल की जानिब वक़्त के बे-निशान मेहवर पर नूर के दाएरे हैं गर्दिश में आख़िर इन क़ाफ़िलों का रुख़ है किधर कौन आख़िर झिंझोड़ता है मुझे आलम-ए-ख़्वाब में सर-ए-बिस्तर कौन आख़िर मुझे जगाता है आख़िर शब में रोज़ आ आ कर न शहाबा न कोई तय्यारा कौन उड़ कर गया इधर से उधर