वस्ल की रुत हो कि फ़ुर्क़त की फ़ज़ा मुझ से है इश्क़ की राह में सब अच्छा बुरा मुझ से है ये हक़ीक़त है कि तुझ से है मिरा होना मगर बंदगी मेरी है सो तू भी ख़ुदा मुझ से है तू तो बस छोड़ गया था मेरे सीने में इसे तेरी फ़ुर्क़त का मगर ज़ख़्म हरा मुझ से है मेरे ही होने से तारी है दिवानों पे जुनूँ तेरे नज़दीक भी ये रक़्स-ए-हवा मुझ से है वर्ना एक तजरबा-ए-दीद ही काफ़ी होता मेरी ही आँख मगर खौफ़ज़दा मुझ से है मैं ने बख़्शा है तुझे ये गुल-ए-ताज़ा का शबाब ये नई ख़ुशबुएँ ये रंग नया मुझ से है मुझ से हासिल था तेरे जिस्म के धागे को कपास किस तरह सोचता है तू कि जुदा मुझ से है