दीदनी है हमारी ज़ेबाई हम कि हैं हुस्न के तमन्नाई बस ये है इंतिहा तअल्लुक़ की ज़िक्र पर उन के आँख भर आई तू न कर अपनी महफ़िलों को उदास रास है हम को रंज-ए-तन्हाई हम तो कह दें 'सलीम' हाल तिरा कब वहाँ है किसी की शुनवाई और तो क्या दिया बहारों ने बस यही चार दिन की रुस्वाई हम को क्या काम रंग-ए-महफ़िल से हम तो हैं दूर के तमाशाई वो जुनूँ को बढ़ाए जाएँगे उन की शोहरत है मेरी रुस्वाई मो'तक़िद हैं हमारी वहशत के शहर में जिस क़दर हैं सौदाई इश्क़ साहिब ने दिल पे दस्तक दी आइए मुरशिदी ओ मौलाई ये ज़माने का जब्र है कि 'सलीम' हो के मेरे बने हैं सौदाई