ये और बात कि गमले में उग रहा हूँ मैं ज़बान भूल न पाए वो ज़ाइक़ा हूँ मैं अँधेरी शब में हरारत बदन की रौशन रख वही करूँगा इशारा जो कर रहा हूँ मैं सुख़न सफ़र में बदन उस ने खोल रक्खे हैं ज़रा सा साया-ए-दीवार चाहता हूँ मैं मैं चाहता हूँ कहूँ एक नक-चढ़ी सी ग़ज़ल अगरचे हल्क़ा-ए-याराँ में नक-चढ़ा हूँ मैं मुझे क़रीब से देखो मुझे पढ़ो समझो नए सफ़र नए मौसम का क़ाफ़िला हूँ मैं