दिल भी ब-ज़िद है और तक़ाज़ा-ए-यार भी इक बोझ है अना का लबादा उतार भी अपनी शिकस्तगी का मुझे ग़म नहीं मगर बिखरे पड़े हुए हैं यहाँ वज़्अ-दार भी वो क़हर है कि दश्त-ओ-बयाबाँ पे बस नहीं उड़ती है ख़ाक अब के सर-ए-कोहसार भी घट जाएगा शिकस्ता बदन के हिसार में तू अपने आप को कहीं रुक कर पुकार भी ख़ुद को समेटने ही चला था कि ये खुला है और इंतिशार पस-ए-इंतिशार भी वो वक़्त आ पड़ा कि सभी दम-ब-ख़ुद रहे काम आ सका न अपने लहू का हिसार भी किस धुंद में उलझने लगा हूँ मैं आज शाम बे-मंज़री की ख़ाक है आँखों के पार भी