दिल दिया तब कि बहुत ज़ुल्फ़-ए-रसा ने चाहा आप फ़रमाते हैं यूँ उस की बला ने चाहा ता-दम-ए-मर्ग न हों तुझ से मिरी जान जुदा मैं ने चाहा था व-लेकिन न ख़ुदा ने चाहा चल बसे देखते ही चाल अदा की हम तो हो वे क़िस्सा ही अदा तेरी अदा ने चाहा घर से किस तरह से यूँ हज़रत-ए-मुनइ'म निकलें दी न बूबू ने इजाज़त न दिवाने चाहा हो के यक-दस्त तिरे और ही ऐ यार-ए-नुमूद जब तुझे हम से किसी बे-सर-ओ-पा ने चाहा मरते मरते भी न यक-बार तुझे देख लिया इस क़दर भी न मिरी जान क़ज़ा ने चाहा कोई अपना न हुआ सिलसिला-जुम्बान-ए-जुनूँ एक फ़िल-जुमला उसी ज़ुल्फ़-ए-दोता ने चाहा जिस तरह चाहो सताओ मुझे हर रोज़ बुतो उस का इक रात एवज़ लूँगा ख़ुदा ने चाहा नाम-ए-अन्क़ा से भी नंग आता है 'एहसान' मुझे शोहरा-ए-नाम को क्यूँ अहल-ए-फ़ना ने चाहा