दिल-ए-हज़ीं को अलम में क़रार भी तो नहीं मिज़ाज-ए-यार पे कुछ इख़्तियार भी तो नहीं अभी से दश्त-नवर्दी की फ़िक्र क्यों दिल को चमन में आने को फ़स्ल-ए-बहार भी तो नहीं मैं कैसे मान लूँ अपने को जाँ-निसारों में मिरी वफ़ा का तुम्हें ए'तिबार भी तो नहीं हमारा शुक्र तिरी ने'मतों के आगे क्या तिरे करम का है कोई शुमार भी तो नहीं रहा ये ग़ुंचा-ए-दिल ना-शगुफ़्ता मिस्ल-ए-ख़िज़ाँ गिरह-कुशा-ए-तबीअ'त बहार भी तो नहीं तुम्हारे वा'दों पे अब किस तरह यक़ीन आए वफ़ा हुआ है कभी एक बार भी तो नहीं बसर करे कोई वहशी भी दश्त में क्यूँकर कोई दरख़्त यहाँ साया-दार भी तो नहीं अब उन की शान-ए-तग़ाफ़ुल का क्या गिला कीजे जब अपने दिल पे मुझे इख़्तियार भी तो नहीं हो 'साक़िब' आप को अहल-ए-वतन से शिकवा क्या कि ख़ाकसार ग़रीब-उद-दयार भी तो नहीं