चैन फ़ुर्क़त में कभी शाम-ओ-सहर ने न दिया दर्द-ए-दिल ने तो कभी दर्द-ए-जिगर ने न दिया जब भी आया है तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ का ख़याल मेरी सुलझी हुई फ़िक्रों को सँवरने न दिया थे परेशाँ तो बहुत उम्र-ए-रवाँ के औराक़ हम ने शीराज़ा-ए-उल्फ़त को बिखरने न दिया इम्तिहाँ ज़र्फ़ का रिंदों के रहा पेश-ए-नज़र आज साक़ी ने किसी जाम को भरने न दिया शाम-ए-फ़ुर्क़त की हवाएँ तो बला बन के रहीं मुज़्दा-ए-वस्ल कभी बाद-ए-सहर ने न दिया आ गया सब्र-ओ-तवक्कुल न रही हिर्स-ओ-हवस बे-ज़री ने वो दिया मुझ को जो ज़र ने न दिया चलते रहते हैं यूँही राह-ए-वफ़ा में 'साक़िब' अब भी मंज़िल का पता राह-गुज़र ने न दिया