दिल होता है तस्कीन के आलम में हज़ीं और ले चल मुझे ऐ शौक़-ए-सुबुक-गाम कहीं और हाँ और उठा पर्दे को ऐ पर्दा-नशीं और मुझ सा नहीं कोई तिरे जल्वों का अमीं और जितनी वो मिरे हाल पे करते हैं जफ़ाएँ आता है मुझे उन की मोहब्बत का यक़ीं और मय-ख़ाने की है शान उसी शोर-ए-तलब से हाँ और नहीं पर है तक़ाज़ा कि नहीं और है हासिल-ए-सद-ज़ीस्त जवानी का ये आलम ऐ उम्र-ए-गुरेज़ाँ मुझे रहने दे यहीं और मुझ सा जो नहीं और कोई चाहने वाला तुझ सा भी ज़माने में नहीं कोई हसीं और काफ़ी नहीं मुझ को ये निगाह-ए-ग़लत-अंदाज़ हाँ और बढ़ा हौसला-ए-क़ल्ब-ए-हज़ीं और तकरार का ऐ शैख़ यही तो है नतीजा तुम ने जो कहीं और तो हम से भी सुनीं और हम मर्तबा-ए-'अर्श' कोई उन में न होगा होंगे दर-ए-जानाँ के बहुत ख़ाक-नशीं और