दिल इक दुनिया बसा लेता है गर कोई नहीं आता फ़क़त महसूस करता है नज़र कोई नहीं आता ख़बर अच्छी बुरी ताज़ा पुरानी हो न हो फिर भी हमारी महफ़िलों में बे-ख़बर कोई नहीं आता जो पीछे छोड़ आए हैं उसी पे लौट जाएँगे खुलेगा जब कि इन रस्तों पे घर कोई नहीं आता कभी शातिर से शायद इस लिए भी जीत सकता हूँ कि मुझ को चाल चलने का हुनर कोई नहीं आता बुरे वक़्तों ने ऐसा घेर रक्खा है कि बरसों से इधर अच्छे दिनों का नामा-बर कोई नहीं आता गुज़र जाओ 'शहाब' इस पुर-ख़तर काँटों के जंगल से कि इस के बाद फिर ऐसा सफ़र कोई नहीं आता