दिल इश्क़ में तबाह हुआ या कि जल गया अच्छा हुआ ख़लिश गई काँटा निकल गया उल्फ़त में उस की जान गई दिल भी जल गया दुश्मन का दो ही दिन में दिवाला निकल गया दिल अपना उस से माँगने को मैं जो कल गया आँखें निकालें लड़ने को फ़ौरन बदल गया जलते हैं ग़ैर अपना तो मतलब निकल गया क़िस्मत से बात बन भी गई दाव चल गया तारीफ़-ए-हुस्न-ए-यार ने इस को क्या रक़ीब रहबर भी बीच रस्ते में हम से बदल गया करता हूँ अर्ज़ उन से जो चलने की मैं कहीं कहते हैं क्या दिमाग़ तुम्हारा भी चल गया भारी है रात हिज्र की बीमार पर तिरे फिर उस को ख़ौफ़ कुछ नहीं ये दिन जो टल गया दुश्मन के नक़्श-ए-पा को जो देते हो गालियाँ पीटो लकीर साँप तो आया निकल गया किस रंग में वो रहते हैं उस की ख़बर नहीं महफ़िल में इन की आज मैं पहले-पहल गया अरमान क्या गए कि गया दिल भी इश्क़ में ये वो जुआ है जिस में हमारा मुदल गया वो जल्वा-गाह-ए-नाज़ हो या बज़्म-ए-ग़ैर हो जन्नत हमें वहीं है जहाँ दिल बहल गया दुश्मन भी जाँ-निसार बने दे के अपना दिल हैरत है मुझ को रुपया खोटा भी चल गया अंजाम-ए-इश्क़ देख लिया अपनी आँख से अब तो 'सफ़ी' दिमाग़ का तेरे ख़लल गया