दिल जला फिर चराग़ जलते ही अपने दुख भी हैं शाम जैसे ही कितने चेहरे उतर गए देखो धूप दीवार से उतरते ही मौसमों का पता चला मुझ को रंग दीवार का बदलते ही हम ने दरिया में रास्ता पाया इक तिरा नाम ले के चलते ही ज़िंदगी कितनी ख़ूबसूरत है हाँ मगर साँस के उखड़ते ही 'मीर' की याद आ गई हम को सुब्ह करते ही शाम करते ही एक ज़िंदा मिसाल थी न रही हाए उस आदमी के मरते ही टूटना अपने दिल का याद आया आइना टूट कर बिखरते ही तेरा लहजा 'मतीन' ऐसा है फूल झड़ते हैं बात करते ही