अकेला घर है क्यों रहते हो क्या देती हैं दीवारें यहाँ तो हँसने वालों को रुला देती हैं दीवारें इन्हें भी अपनी तन्हाई का जब एहसास होता है तो गहरी नींद से मुझ को जगा देती हैं दीवारें बुझे माज़ी का खिलते हाल से रिश्ता अजब देखा खंडर ख़ामोश हैं लेकिन सदा देती हैं दीवारें हवा के ज़ख़्म सह कर बारिशों की चोट खा खा कर छतों को रौज़नों को आसरा देती हैं दीवारें रहूँ घर में तो मेरे सर पे चादर तान देती हैं सफ़र पर जब निकलता हूँ दुआ देती हैं दीवारें जो चलना ही न चाहे रोक लेते हैं उसे ज़र्रे बगूलों को सफ़र में रास्ता देती हैं दीवारें वो सारी गुफ़्तुगू जो बंद कमरों ही में होती है मैं जब बाहर से आता हूँ सुना देती हैं दीवारें उतरती और चढ़ती धूप की पहचान है इन को अभी दिन कितना बाक़ी है बता देती हैं दीवारें 'मतीन' इस चिलचिलाती धूप में साया इन्ही से है मैं जब भी टूटता हूँ हौसला देती हैं दीवारें