दिल जो घबराया तो उठ कर दोस्तों में आ गया मैं कि आईना था लेकिन पत्थरों में आ गया आज उस के बाल भी गर्द-ए-सफ़र से अट गए आज वो घर से निकल कर रास्तों में आ गया पढ़ रहा हूँ उस किताब-ए-जिस्म की इक इक वरक़ नूर सब आँखों का खिंच कर उँगलियों में आ गया लोग कहते हैं कि अपना शहर है लेकिन मुझे यूँ गुमाँ होता है जैसे दुश्मनों में आ गया हम भरे बाज़ार में उस वक़्त सूली पर चढ़े शहर सारा टूट कर जब खिड़कियों में आ गया शब-ज़दों ने रौशनी माँगी तो सूरज दफ़अ'तन आसमानों से उतर कर बस्तियों में आ गया जब समेटा मैं ने अपने रेज़ा रेज़ा जिस्म को और भी कुछ ज़ोर 'साग़र' आँधियों में आ गया