दिल जो हँसता है तो रोने का गुमाँ होता है ख़ुद को पा कर उसे खोने का गुमाँ होता है दिन को जब घर से निकलता हूँ तो अक्सर मुझ को साए के बोझ को ढोने का गुमाँ होता है जब भी आती है मिरे सहन में ख़ुश्बू-ए-गुल तेरे घर के किसी कोने का गुमाँ होता है ओढ़ लेता हूँ शरारों की रिदाएँ जब में रेग-ए-सहरा पे बिछौने का गुमाँ होता है नर्म होते ही बदल जाती है सूरत मेरी यक-ब-यक चाक पे होने का गुमाँ होता है एक ही अश्क मुक़द्दर से मिला है फिर भी हर किसी दाग़ को धोने का गुमाँ होता है हेच थी मेरी निगाहों में हक़ीक़त लेकिन अब तो मिट्टी पे भी सोने का गुमाँ होता है टूटने और बिखरने में लगा हूँ जब से मुझ को अपने पे खिलौने का गुमाँ होता है पार करता हूँ समुंदर पे समुंदर 'राहत' फिर भी ख़ुद को ही डुबोने का गुमाँ होता है