दिल के हर ज़ख़्म-ए-तमन्ना की क़बा जलती है ग़म का वो जोश-ए-नुमू है कि फ़ज़ा जलती है रौशनी है मिरी राहों में उसी मशअ'ल से दस्त-ए-नाज़ुक पे जो तहरीर-ए-हिना चलती है इस तरफ़ मेरा ग़म-ए-दिल है सुलगता हुआ ग़म उस तरफ़ उस के तबस्सुम की रिदा जलती है मेरी आहों के तरन्नुम में तरावत ही सही साँस लेता हूँ तो ऐ दोस्त फ़ज़ा जलती है उस ने किस कर्ब-ए-तमन्ना से पुकारा है मुझे दिल ने महसूस किया है कि सदा जलती है ये मिरी तीरा-नसीबी तो नहीं है 'मुतरिब' हाए किस आग में वो शम-ए-हया जलती है