दिल के कहने पे चलूँ अक़्ल का कहना न करूँ मैं इसी सोच में हूँ क्या करूँ और क्या न करूँ ज़िंदगी अपनी किसी तरह बसर करना है क्या करूँ आह अगर तेरी तमन्ना न करूँ मजलिस-ए-वाज़ में क्या मेरी ज़रूरत नासेह घर में बैठा हुआ शुग़ल-ए-मय-ओ-मीना न करूँ मस्त है हाल में दिल बे-ख़बर-ए-मुस्तक़बिल सोचता हूँ उसे हुश्यार करूँ या न करूँ किस तरह हुस्न-ए-ज़बाँ की हो तरक़्क़ी 'वहशत' मैं अगर ख़िदमत-ए-उर्दू-ए-मुअ'ल्ला न करूँ