दिल के सब दाग़ खिले हैं गुल-ए-ख़ंदाँ हो कर रंग लाया है ये ग़ुंचा चमनिस्ताँ हो कर दामन-ए-तर है कि दफ़्तर है ये रुस्वाई का मेरी आँखों ने डुबोया मुझे गिर्यां हो कर नींद आई जो कभी ज़ुल्फ़ के दीवाने को चौंक उठा ख़्वाब-ए-परेशाँ से परेशाँ हो कर निगह-ए-शौक़ तो दर-पर्दा ख़बर लेती है आप जाएँगे कहाँ आँख से पिन्हाँ हो कर जल्वा-गर आइना-ख़ाने में हुआ कौन हसीं नक़्श-ए-दीवार हैं सब आइने हैराँ हो कर दिल में आए हैं तो अब दिल से निकलते ही नहीं घर पे क़ब्ज़ा किए बैठे हैं वो मेहमाँ हो कर शोहरा-ए-हुस्न अभी क्या है शबाब आने दो नाम चमकेगा तुम्हारा मह-ए-ताबाँ हो कर क़त्ल के बा'द वफ़ा मेरी जो याद आई है सर झुकाए हुए बैठे हैं पशेमाँ हो कर मस्त आँखों पे बिखर जाती है जब ज़ुल्फ़ 'जलील' मैं समझता हूँ घटा छाई है मय-ख़ानों पर