सुनी तो उस ने ग़ैरों से हुआ गो बद-गुमाँ हम से बहर-सूरत रही बेहतर हमारी दास्ताँ हम से ज़बाँ पर आएगी क्या पास नामूस-ए-मोहब्बत से नहीं दोहराई जाती दिल में अपनी दास्ताँ हम से चुने थे चार तिनके एक दिन सेहन-ए-गुलिस्ताँ में रहा ता-ज़िंदगी बरहम मिज़ाज-ए-बाग़बाँ हम से दुहाई है ग़म-ए-मजबूरी-ए-इम्काँ दुहाई है कि फिरती हैं दम-ए-रेहलत हमारी पुतलियाँ हम से सुबुक-सर रह चुके हैं हम भी दुनिया में कभी लेकिन ये ज़िक्र उस वक़्त का है आप जब थे सरगिराँ हम से क़फ़स ही हो गया तूल-ए-असीरी से नशेमन जब न छूटे आशियाँ से हम न छूटा आशियाँ हम से ज़माना दूसरी करवट बदलता भी तो क्या होता बदल जाती न उफ़्ताद-ए-ज़मीन-ओ-आसमाँ हम से बहार आने से पहले इक परेशाँ ख़्वाब देखा था कि जैसे फ़स्ल-ए-गुल में छुट रहा है आशियाँ हम से ज़माना साज़ियाँ क़ुर्बां मआल अंदेशियाँ सदक़े वो सुनने आज बैठे हैं हमारी दास्ताँ हम से मदद ऐ लज़्ज़त-ए-ज़ौक़-ए-असीरी अब ये हसरत है क़फ़स वाले बदल लेते हमारा आशियाँ हम से तसव्वुर में खिंचा नक़्शा है उन के रू-ए-रंगीं का ब-ज़ाहिर पर्दा-ए-दिल में हैं 'अफ़्क़र' वो निहाँ हम से