दिल के तातार में यादों के अब आहू भी नहीं आईना माँगे जो हम से वो परी-रू भी नहीं दश्त-ए-तन्हाई में आवाज़ के घुँगरू भी नहीं और ऐसा भी कि सन्नाटे का जादू भी नहीं ज़िंदगी जिन की रिफ़ाक़त पे बहुत नाज़ाँ थी उन से बिछड़ी तो कोई आँख में आँसू भी नहीं चाहते हैं रह-ए-मय-ख़ाना न क़दमों को मिले लेकिन इस शोख़ी-ए-रफ़्तार पे क़ाबू भी नहीं तल्ख़ियाँ नीम के पत्तों की मिली हैं हर सू ये मिरा शहर किसी फूल की ख़ुशबू भी नहीं जाने क्या सोच के हम रुक गए वीरानों में परतव-ए-रुख़ भी नहीं साया-ए-गेसू भी नहीं हुस्न-ए-इमरोज़ को तश्बीहों में तौलें कैसे अब वो पहले से ख़म-ए-काकुल-ओ-अबरू भी नहीं हम ने पाई है उन अशआर पे भी दाद 'ज़ुबैर' जिन में उस शोख़ की तारीफ़ के पहलू भी नहीं