दिल की इक हर्फ़-ओ-हिकायात है ये भी न सही गर मिरी बात में कुछ बात है ये भी न सही ईद को भी वो नहीं मिलते हैं मुझ से न मिलें इक बरस दिन की मुलाक़ात है ये भी न सही दिल में जो कुछ है तुम्हारे नहीं पिन्हाँ मुझ से ज़ाहिरी लुत्फ़ ओ मुदारात है ये भी न सही ज़िंदगी हिज्र में भी यूँ ही गुज़र जाएगी वस्ल की एक ही गर रात है ये भी न सही मेरी तुर्बत पे लगाते नहीं ठोकर न लगाओ ये ही बस उन की करामात है ये भी न सही काट सकते हैं गला ख़ुद भी न कीजे हमें क़त्ल आप के हाथ में इक बात है ये भी न सही क़त्ल-ए-क़ासिद पे कमर बाँधी है 'शोला' उस ने ख़त किताबत की मुलाक़ात है ये भी न सही