नशात-ए-हिज्र को तेरी कमी को भूल गए तिरे ख़याल में डूबे तुझी को भूल गए वो दुनिया-दार हैं हम ने कभी कहा तो न था अजीब लोग हैं इस सादगी को भूल गए अदू ने हम से हमारा ग़ुरूर माँगा था अना-परस्त थे हम ज़िंदगी को भूल गए जुनूँ का एक तक़ाज़ा था सिर्फ़ सर-मस्ती किताब झोंक दी हम आगही को भूल गए ये कैसी बज़्म सजी क़हक़हा नहीं गूँजा गुमाँ है तुम भी किसी आदमी को भूल गए किसी के अश्क ने सैराब कर दिया 'शाह-जी' सो हम ग़रीब-ए-वतन तिश्नगी को भूल गए