दिल की गिर्हें कहाँ वो खोलता है By Ghazal << इक लम्हे ने जीवन-धारा रोक... देखने को कोई तय्यार नहीं ... >> दिल की गिर्हें कहाँ वो खोलता है चाहतों में भी झूट बोलता है संग-रेज़ों को अपने हाथों से मोतियों की तरह वो रोलता है कैसा मीज़ान-ए-अदल है उस का फूल काँटों के साथ तौलता है ऐसा वो डिप्लोमैट है 'अकबर' ज़हर अमृत के साथ घोलता है Share on: