दिल की लगी के साथ अजब दिल-लगी रही ज़ालिम से दोस्ती में भी अक्सर ठनी रही वो दूर हो गए तो ये उलझन बनी रही शायद मिरे ख़ुलूस में कोई कमी रही महफ़िल में उन की पास-ए-अदब भी ज़रूर था ख़ामोश थी ज़बान नज़र बोलती रही औसाफ़ आजिज़ी के तकब्बुर ने खा लिए किरदार-ए-नस्ल-ए-नौ में कहाँ आजिज़ी रही देता रहा जहाँ को हर इक साँस का हिसाब कैसी अज़ाब-ए-जाँ ये मिरी ज़िंदगी रही गुम-कर्दा राह-ए-शौक़ रहा मैं तमाम उम्र मंज़िल अगरचे राह मिरी देखती रही 'क़ैसर' उठो कि आग लगी है मकान में जल जाओगे जो तुम में यूँही बे-हिसी रही