दिल की लगी में अब जो सिरहाने लगा हूँ मैं मुद्दत के बा'द अपने ठिकाने लगा हूँ मैं दीवानगी को देख तो किस इंतिहा की है तुझ से निकल के ख़ुद में समाने लगा हूँ मैं पत्थर का बुत बना रहा इक उम्र जाने क्यों तुझ से मिला तो अश्क बहाने लगा हूँ मैं मख़्लूक़ का है काम ही जलती पे तेल का अपनी लगी को आप बुझाने लगा हूँ मैं कुछ नक़्श बन गए हैं तिरे लफ़्ज़ जोड़ कर तुझ को तिरा ख़याल सुनाने लगा हूँ मैं ये सोचना भी कुफ़्र कि इल्ज़ाम दूँ तुझे अपनी जबीं का दाग़ मिटाने लगा हूँ मैं वो बा-कमाल इतना कहाँ तीर-बाज़ था इक हादिसा था उस के निशाने लगा हूँ मैं करने लगा हूँ ख़त्म सभी सिलसिले 'नियाज़' भटका हुआ था लौट कर आने लगा हूँ मैं