इक इश्क़-नगर से यहाँ इक शहर-ए-हसीं का इक आसमाँ से और हुआ एक ज़मीं का काफ़िर हूँ ज़ियाँ का जो मैं सोचा भी कभी हो इक दाग़ ही काफ़ी है मुझे मेरी जबीं का इक बार ख़िरद ले गई थी उस की गली में फिर होश गया मेरा रहा हो के वहीं का हाकिम को फ़क़त हुक्म लगाने से ग़रज़ है सोचा ही कहाँ उस ने मिरी हाँ या नहीं का हम लोग किसी तौर सफ़र काट ही लेते छालों ने मगर पाँव के रक्खा न कहीं का