दिल को आज़ार लगा वो कि छुपा भी न सकूँ पर्दा वो आ के पड़ा है कि उठा भी न सकूँ मुद्दआ सामने उन के नहीं आता लब तक बात भी क्या ग़म-ए-दिल है कि सुना भी न सकूँ बे-जगह आँख लड़ी देखिए क्या होता है आप जा भी न सकूँ उन को बुला भी न सकूँ वो दम-ए-नज़अ मिरे बहर-अयादत आए हाल कब पूछते हैं जब कि सुना भी न सकूँ ज़िंदगी भी शब-ए-हिज्राँ है कि कटती ही नहीं मौत है क्या तिरा आना कि बुला भी न सकूँ दम है आँखों में इसे जान में लाऊँ क्यूँकर कब वो आए कि उन्हें हाथ लगा भी न सकूँ शर्म-ए-इस्याँ ने झुकाया मिरी गर्दन को 'ज़हीर' बोझ वो आ के पड़ा है कि उठा भी न सकूँ