दिल को ग़म रास है यूँ गुल को सबा हो जैसे अब तो ये दर्द की सूरत ही दवा हो जैसे हर-नफ़्स हल्क़ा-ए-ज़ंजीर नज़र आता है ज़िंदगी जुर्म-ए-तमन्ना की सज़ा हो जैसे कान बजते हैं सुकूत-ए-शब-ए-तन्हाई में वो ख़मोशी है कि इक हश्र बपा हो जैसे अब तो दीवानों से यूँ बच के गुज़र जाती है बू-ए-गुल भी तिरे दामन की हवा हो जैसे कहते कहते ग़म-ए-दिल उम्र गुज़ारी लेकिन फिर भी एहसास ये है कुछ न कहा हो जैसे 'होश' बे-ताबी-ए-एहसास का आलम तौबा मुझ में छुप कर वो मुझे देख रहा हो जैसे