क़ैस का तुझ में जुनूँ जज़्बा-ए-मंसूर नहीं वर्ना मंज़िल-गह-ए-दिलदार तो कुछ दूर नहीं कोह-ओ-वादी वही बिजली वही बे-होशी भी जल्वा लेकिन वो दिल-अफ़रोज़ सर-ए-तूर नहीं ढूँडने जाऊँ किसे जाऊँ तो मैं जाऊँ कहाँ दिल के जो पास है वो आँख भी कुछ दूर नहीं फेर में ज़ात-ओ-सिफ़त के न सरासीमा हो नहीं मा'लूम कि जौहर से अरज़ दूर नहीं नज़र आता नहीं तुझ को तो है आँखों का क़ुसूर अक्स से शख़्स हक़ीक़त में ज़रा दूर नहीं जल्वा-सामाँ है रह-ए-इश्क़ में ज़र्रा ज़र्रा साहब-ए-ज़ौक़-ए-नज़र मुंतज़िर-ए-तूर नहीं अम्र-ए-हक़ हर्फ़-ए-अज़ल है तो ये फ़तवे कैसे वो नई बात नहीं मैं कोई मंसूर नहीं झूट सच उस को है यकसाँ वो है अपनी धुन का हक़-शनासी मिरे नक़्क़ाद का दस्तूर नहीं किब्र ही से तो अज़ाज़ील है शैतान-ए-रजीम आदमी है वही इंसान जो मग़रूर नहीं क्या तमाशा है लिए जाते हैं तक़दीर का नाम और तदबीर से इक लहज़ा भी मा'ज़ूर नहीं नहीं तक़दीर की तहरीर से इंकार मगर इस में तदबीर मुक़द्दर है जो मज़कूर नहीं आप तक़दीर सुधर जाएगी तदबीर तो कर कौन कहता है कि इंसान को मक़्दूर नहीं तू अवारिज़ से अवारिज़ की है तुझ से पर्वाज़ तू जो मुतलक़ नहीं मुख़्तार तो मजबूर नहीं ज़र्रे ज़र्रे को है इक फ़र्ज़ वदीअ'त हक़ से न समझ तो कोई क़ैसर नहीं फ़ग़्फ़ूर नहीं कारगाह-ए-अमल इस दहर को वो समझे हैं गुल-ओ-बुलबुल के करिश्मों से जो मातूर नहीं कल मैं मिल-जुल के रहे जुज़ का उसी में है वक़ार फ़र्द नाचीज़ है गर शामिल-ए-जम्हूर नहीं क्यूँ खिचे रहते हैं ये शैख़-ओ-बरहमन बाहम दैर का'बा से जो हक़ पर हो नज़र दूर नहीं अदब-ओ-शेर का आलिम है वो वहदत-ए-आईं कि जहाँ काफ़िर-ओ-दीं-दार का मज़कूर नहीं हद-ए-जुग़राफ़िया से शे'र की दुनिया है जुदा दूर कीलास से दो गज़ भी यहाँ तूर नहीं कैफ़ बाक़ी है वो इस में कि नहीं जिस को ख़ुमार बादा-ए-शेर कोई बादा-ए-अंगूर नहीं साक़ी-ए-मस्त-नज़र है ये फ़ुसूँ या ए'जाज़ सब को मदहोश किया आप तो मख़मूर नहीं साग़र इक और भी दे पीर-ए-मुग़ाँ 'कैफ़ी' को नश्शा-ए-बे-ख़ूदी-ए-इश्क़ में वो चूर नहीं