दिल को जब हासिल सफ़ाई हो गई जल्वा-गर बुत में ख़ुदाई हो गई ज़िक्र वस्ल आ आ के लब पर रह गया ये भी क्या आशिक़ की आई हो गई वार क्या शैतान का अब चल सके वो भी इक गंदुम-नुमाई हो गई नूर हर पत्थर में पाया तूर का चश्म-ए-दिल को रौशनाई हो गई बीच से पर्दा-दुई का उठ गया तो ख़ुदी ख़ुद फिर ख़ुदाई हो गई