दिल को जो अपने बस में न पाऊँ तो क्या करूँ आँखें न रहगुज़र में बिछाऊँ तो क्या करूँ पा कर तुम्हें जो होश नहीं है तो क्या हुआ खो कर तुम्हें जो होश में आऊँ तो क्या करूँ तुम से कहीं अज़ीज़ तुम्हारा ख़याल है दे कर उसे तुम्हें भी जो पाऊँ तो क्या करूँ आएँगे आज बहर-अयादत वो मेरे घर मारे ख़ुशी के मर ही न जाऊँ तो क्या करूँ सब्ज़ा हो रोज़-ए-आब हो मय हो निगार हो अब भी न मैं पियूँ न पिलाऊँ तो क्या करूँ है जान-ओ-दिल अज़ीज़ मुझे तुम अज़ीज़-तर तुम ही कहो कि दर पे न आऊँ तो क्या करूँ अब तक तो शौक़-ए-दीद में था बे-क़रार मैं मिल कर भी तुम से चैन न पाऊँ तो क्या करूँ दोज़ख़ भी है क़ुबूल तुम्हारे करम के साथ जन्नत को तुझ से दूर जो पाऊँ तो क्या करूँ माना कि एक रोग है उल्फ़त भी ऐ 'हबीब' उस के बग़ैर दिल भी जो पाऊँ तो क्या करूँ