दिल को किस सूरत से कीजे चश्म-ए-दिलबर से जुदा शीशा-ए-मय को नहीं रखते हैं साग़र से जुदा मैं तो हूँ ऐ ताला-ए-बरगश्ता दिलबर से जुदा और पत्थर आसिया का हो न पत्थर से जुदा उस के बहर-ए-हुस्न में मत छोड़ ऐ दिल तार-ए-ज़ुल्फ़ ग़र्क़ हो जाती है कश्ती हो के लंगर से जुदा इश्क़ में शीरीं के तू ने जान-ए-शीरीं दी है आह नक़्श तेरा कोहकन हो क्यूँ कि पत्थर से जुदा चश्म ये तुझ से है या-रब ता न हो लैल-ओ-नहार चश्म उस पर्दा-नशीं के रख़ना-ए-दर से जुदा कंदा इस मेरे नगीन-ए-दिल पे तेरा नाम है उस को अपने ख़ातम-ए-दिल के न कर घर से जुदा इस को कहते हैं मोहब्बत शीशा-ए-साअत को देख एक के होता नहीं है दूसरा बर से जुदा वो उधर ख़ंदाँ है मैं गिर्यां इधर हैरत है ये बर्क़ चमके अब्र गरजे और मेंह बरसे जुदा सूरत-ए-बादाम-ए-तौ-अम रोज़-ओ-शब होता नहीं चश्म-ए-दिलबर का तसव्वुर चश्म के घर से जुदा सोज़न-ए-बे-रिश्ता आती है कसी को कब नज़र तो न हो ऐ आह-ए-दिल इस जिस्म-ए-लाग़र से जुदा पर्दा-ए-मीना से साक़ी दुख़्त-ए-रज़ निकले है क्यूँ आफ़्ताब-ए-ख़ावरी होता है ख़ावर से जुदा उस की मिज़्गाँ से छुड़ाऊँ दिल को किस सूरत से मैं पंजा-ए-शाहीं नहीं होता कबूतर से जुदा ताब उस चम्पा-कली की यूँ है तिकमे के तले जूँ किरन चमके है हो कर महर-ए-अनवर से जुदा अश्क-ए-चश्म-ए-तर को रहने दूँ तह-ए-मिज़्गाँ न क्यूँ तिफ़्ल को करते नहीं दामान-ए-मादर से जुदा इस ज़मीं में लिख ग़ज़ल इक और पुर-मअ'नी 'नसीर' रंग यानी हो नहीं सकता गुल-ए-तर से जुदा इस ग़ज़ल को सुन के 'ख़ाक़ानी' करे वज्द ऐ 'नसीर' 'अनवरी' भी सर को अपने पटके पत्थर से जुदा