दिल को नसीब ग़म की क़यादत नहीं रही अब जुस्तजू-ए-ऐश में लज़्ज़त नहीं रही नैरंग-ए-चश्म-ए-दोस्त है मुझ पर असर-पज़ीर अब मर्ग-ओ-ज़ीस्त में वो रक़ाबत नहीं रही बदली हुई है क़द्र-ए-गरेबाँ दरीदगी या ख़ंदा-हा-ए-गुल में सदाक़त नहीं रही अपनी तबीअ'त आज ब-फ़ैज़-ए-ग़म-ए-हयात मिदहत कुन-ए-मता-ए-लताफ़त नहीं रही शिकवा ग़लत है रहमत-ए-परवरदिगार से मुझ को ही क़द्र-ए-अश्क-ए-नदामत नहीं रही इरफ़ान आज रांदा-ए-दरगाह-ए-अक़्ल है उफ़ आश्ती-ए-चश्म-ओ-बसारत नहीं रही खुलने लगा है आतिश-ए-सय्याल का भरम अब बज़्म-ए-मय भी बाइ'स-ए-'फरहत' नहीं रही