दिल को तर्ज़-ए-निगह-ए-यार जताते आए तीर भी आए तो बे-पर की उड़ाते आए बादशाहों का है दरबार दर-ए-पीर-ए-मुग़ाँ सैकड़ों जाते गए सैकड़ों आते आए छुप के भी आए मिरे घर तो वो दरबानों को अपनी पाज़ेब की झंकार सुनाते आए रोज़-ए-महशर जो बुलाए गए दीवाना-ए-ज़ुल्फ़ बेड़ियाँ पहने हुए शोर मचाते आए क्या कहेंगे कोई महशर में जो पूछेगा 'अमीर' क्यूँ न बिगड़ी हुई बातों को बनाते आए