दिल लिया जिस ने बेवफ़ाई की रस्म है क्या ये दिलरुबाई की तज़्किरा सुल्ह-ए-ग़ैर का न करो बात अच्छी नहीं लड़ाई की तुम को अंदेशा-ए-गिरफ़्तारी याँ तवक़्क़ो नहीं रिहाई की वस्ल में किस तरह हूँ शादी-ए-मर्ग मुझ को ताक़त नहीं जुदाई की दिल न देने का हम को दावा है किस को है लाफ़ दिलरुबाई की एक दिन तेरे घर में आना है बख़्त ओ तालए ने गर रसाई की दिल लगाया तो नासेहों को क्या बात जो अपने जी में आई की 'शेफ़्ता' वो कि जिस ने सारी उम्र दीन-दारी ओ पारसाई की आख़िर-ए-कार मय-परस्त हुआ शान है उस की किबरियाई की