फ़ज़ा मलूल थी मैं ने फ़ज़ा से कुछ न कहा हवा में धूल थी मैं ने हवा से कुछ न कहा यही ख़याल कि बरसे तो ख़ुद बरस जाए सो उम्र-भर किसी काली घटा से कुछ न कहा हज़ार ख़्वाब थे आँखों में लाला-ज़ारों के मिली सड़क पे तो बाद-ए-सबा से कुछ न कहा वो रास्तों को सजाते रहे उन्हों ने कभी घरों में नाचने वाली बला से कुछ न कहा वो लम्हा जैसे ख़ुदा के बग़ैर बीत गया उसे गुज़ार के मैं ने ख़ुदा से कुछ न कहा शबों में तुझ से रही मेरी गुफ़्तुगू क्या क्या दिनों में चाँद तिरे नक़्श-ए-पा से कुछ न कहा