दिल में शर्मिंदा हैं एहसास-ए-ख़ता रखते हैं हम गुनहगार हैं पर ख़ौफ़-ए-ख़ुदा रखते हैं वो सितम-पेशा कहाँ शर्म-ओ-हया रखते हैं हम ग़रीबों पे हर इक ज़ुल्म रवा रखते हैं जेब में कुछ भी नहीं दिल है अमीरों जैसा हाथ ख़ाली हैं मगर ख़ू-ए-अता रखते हैं बेवफ़ाई का ये इल्ज़ाम सरासर है ग़लत हम तो अज्दाद से विर्से में वफ़ा रखते हैं हम ने माना कि तही-दस्त हैं पर सब के लिए दिल में गंजीना-ए-इख़लास-ओ-वफ़ा रखते हैं जाने किस मोड़ पे क्या हादिसा पेश आ जाए मुस्तक़िल जेब में हम अपना पता रखते हैं शाम ढलती है तो नाकामियाँ करती हैं निढाल सुब्ह होती है तो हम अज़्म नया रखते हैं जी-हुज़ूरी किसी सूरत नहीं होती हम से बस इसी वास्ते हम सब को ख़फ़ा रखते हैं क्यों करें फ़िक्र ज़माने के चलन की 'बेबाक' हम तो हर हाल में जीने की अदा रखते हैं