दिल में उस बानी-ए-बे-दाद के घर होने दो

दिल में उस बानी-ए-बे-दाद के घर होने दो
रफ़्ता-रफ़्ता मिरी आहों का असर होने दो

अब तो वो फ़र्त-ए-मोहब्बत से ये फ़रमाते हैं
घर न जाएँगे जो होती है सहर होने दो

शौक़ से हाथों में मेहंदी मलो तुम तो अपने
ख़ून होता है अगर मेरा जिगर होने दो

ज़ुल्फ़ सरकाओ ज़रा आरिज़-ए-ताबाँ से कभी
चाँदनी रात को ऐ रश्क-ए-क़मर होने दो

सर्द-मेहरी से न इक आन भी बाज़ आओ तुम
रूह मेरी है अगर गर्म-ए-सफ़र होने दो

मेहर-ओ-उल्फ़त ही में इस तरह के होते हैं कलाम
रोज़ होता है अगर वस्ल में शर होने दो

तेग़-ए-अबरू के अभी वार अबस करते हो
तुम मुझे भी तो ज़रा सीना-सिपर होने दो

मुद्दतों से वो यूँही टालते हैं वादा-ए-वस्ल
शाम होती है तो कहते हैं सहर होने दो

न कोई फ़िक्र किसी तरह करो तुम 'वहबी'
उम्र जिस तरह से होती है बसर होने दो


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