दिल में पैग़ाम-ए-मोहब्बत सा उतारा जाऊँ इस से पहले कि किसी भीड़ में मारा जाऊँ वस्ल की चाह में ये हिज्र कमाया मैं ने हिज्र को ख़र्च करूँ ज़ीस्त से हारा जाऊँ रूठी तक़दीर हूँ तो मुझ को मनाया जाए और गर बिगड़ा मुक़द्दर हूँ सँवारा जाऊँ एक अर्से से ख़लाओं से सदा आती है ऐसा लगता है मुझे उस ने पुकारा जाऊँ मैं नहीं उन में कि जो ख़ुद को किसी पर थोपें भर गया मुझ से अगर दिल ये तुम्हारा जाऊँ अब यहाँ पहले सी जज़्बात में शिद्दत न रही अब यहाँ होगा नहीं अपना गुज़ारा जाऊँ दे ख़ुदा काश उसे दिल की मसीहाई 'शहाब' और सहीफ़ों सा मैं फिर उस पे उतारा जाऊँ