आई तो कहीं कोई क़यामत नहीं अब के इस शहर में इक सर भी सलामत नहीं अब के यूँ ख़ेमा-ए-गुल ख़ाक हुआ फ़स्ल-ए-जुनूँ में फूलों पे कोई रंग-ए-मलाहत नहीं अब के क्या जानिए किस दश्त का पैवंद हुआ है इक शख़्स सर-ए-कू-ए-मलामत नहीं अब के अब टूट के सहरा में बिखरने की हवस है इक गोशा-ए-दामन पे क़नाअ'त नहीं अब के हाँ अब न रही दार-ओ-रसन से कोई निस्बत हाँ पेश-ए-नज़र वो क़द-ओ-क़ामत नहीं अब के वो ज़ख़्म मिले दिल को सर-ए-मंज़िल-ए-क़ुर्बत इक दुश्मन-ए-जाँ से भी शिकायत नहीं अब के ख़ुद उस ने किया फ़ैसला-ए-तर्क-ए-तअल्लुक़ ख़ुद मुझ से मिरे दिल को नदामत नहीं अब के