दिल में याद-ए-रफ़्तगाँ आबाद है वर्ना ये दिल भी कहाँ आबाद है एक मैं आबाद हूँ इस शहर में और इक मेरा मकाँ आबाद है किस के ये नक़्श-ए-क़दम हैं ख़ाक पर कौन ऐसे में यहाँ आबाद है बाब-ए-उम्र-ए-राएगाँ की लौह पर हर्फ़-ए-एहसास-ए-ज़ियाँ आबाद है मेरे होने से न होना है मिरा आग जलने से धुआँ आबाद है रौनक़-ए-दिल का है आलम दीदनी ख़ाना-ए-आवारगाँ आबाद है इक दरीचा उस गली में आज तक बे-चराग़ ओ बे-निशाँ आबाद है