दिल मूरिद-ए-इल्ज़ाम-ए-वफ़ा और भी निकला इक ग़म ग़म-ए-दौराँ के सिवा और भी निकला यूँ होने को हम से है ख़फ़ा सारा ज़माना इक शख़्स मगर हम से ख़फ़ा और भी निकला हर-चंद कि हम कर्दा ख़ताओं पे थे नादिम दुनिया को मगर हम से गिला और भी निकला पहले ही से बरहम-कुन-ए-महफ़िल थी तबीअत माहौल मगर हम से ख़फ़ा और भी निकला इस बार वो देखें करम-आमादा निगाहें जुज़ हिज्र-ए-मोहब्बत का सिला और भी निकला ले आई थी ज़िंदाँ में शहीदों की मोहब्बत लेकिन सबब-ए-जुर्म-ओ-सज़ा और भी निकला हम वो कि जो राज़ी-ब-रज़ा हो नहीं सकते हर हुक्म पे होंटों से गिला और भी निकला