इश्क़ में बू है किबरियाई की आशिक़ी जिस ने की ख़ुदाई की हम-सरी मत सबा से कर ऐ आह तू ने भी कुछ गिरह-कुशाई की ले चले हम क़फ़स से ऐ सय्याद ख़ाक में आरज़ू रिहाई की रोज़-ए-महशर तलक न आख़िर हों दास्तानें शब-ए-जुदाई की शैख़-जीव से हुई न सरज़द बाव चूल बोली है चारपाई की जिस में यारान-ए-बज़्म हों महज़ूज़ यूँ 'बक़ा' मैं ग़ज़ल-सराई की मीर भी वर्ना ख़ूब कहते हैं काटिए जेब उन की दाई की