दिल मुतमइन नहीं है नज़र मुतमइन नहीं इस दौर-ए-इब्तिला में बशर मुतमइन नहीं कैफ़-ए-बहार बज़्म-ए-तरब रक़्स-ए-जाम-ए-मय किस काम के हैं दिल ही अगर मुतमइन नहीं आलम किसी के तीर-ए-नज़र का शिकार है फिर भी किसी का तीर-ए-नज़र मुतमइन नहीं क्या जाने किस मक़ाम पे ये साथ छोड़ दें इन रहबरों से अहल-ए-सफ़र मुतमइन नहीं सौ बार आशियाना जलाने के बावजूद मेरी तरफ़ से बर्क़-ओ-शरर मुतमइन नहीं फ़ैज़ान-ए-जल्वा और ज़रा आम कीजिए दिल को तो है यक़ीन-ए-नज़र मुतमइन नहीं 'मैकश' को मय-कदा में भी ग़म से नहीं मफ़र हैं बादा-ख़्वार जम्अ' मगर मुतमइन नहीं